उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘वह तो तुम्हारी मां का नाम है।
‘‘तो क्या यह नाम नहीं रखा जा सकता?’’
‘‘ऊं-हूं’’ दादी ने मुस्कराते हुए कहा।
‘‘तो तुम बता दो।’’
‘‘अच्छा।’’ दादी ने कहा और फिर विचार कर बोली, ‘‘लक्ष्मी।’’
‘‘यह तो उस लड़की का नाम है जो उस...।’’ मदन ने हाथ उठाकर दूर दिशा की ओर संकेत कर दिया—‘‘घर में रहती है।’’
‘‘हां, वह बड़ी लक्ष्मी है और यह हमारी छोटी लक्ष्मी होगी।’’
मदन पांच वर्ष का हुआ तो स्कूल जाने लगा। पिछले दो वर्षों में घर में परिवर्तन होने लगे थे। घर की मरम्मत हो गई थी। पहले केवल रसोई का फर्श पक्का था। अब सब घर के फर्श पक्के और दीवारों पर तथा घर के बाहर-भीतर पलस्तर सफेदी तथा दरवाजों पर रंगरोगन हो गया था। गोपीचन्द अब शाहदरा में फलों की छोटी-सी दुकान करता था। घर में फर्नीचर और कपड़े भी साफ-सुथरे दिखाई देने लगे थे। मदन सप्ताह में दो बार कपड़े बदलता था। लक्ष्मी के कपड़े तो मदन के कपड़ों से भी अधिक साफ-सुथरे होते थे।
लक्ष्मी को गोपी और उसकी पत्नी के हवाले करके जाने वाले उसके पालन-पोषण के लिए पचहत्तर रुपये मासिक देते थे। प्रति वर्ष मोटर आती थी और उसमें एक स्त्री और एक पुरुष होता था, वे लक्ष्मी को देखते, गोद में लेते, प्यार करते और एक सहस्र रुपया दे जाते थे। साथ ही लड़की के पहनने के लिए भांति-भांति के कपड़े और गले में डालने के लिए एक सोने की चैन दे गए थे।
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