उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
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पांच वर्ष व्यतीत हो गये। लक्ष्मी अब सुन्दर चुलबुली और लम्बी-पतली लड़की निकल आई थी। मदन इस समय तीसरी श्रेणी में पढ़ता था। इस बार वही स्त्री और पुरुष आये तो गोपी की पत्नी से बोले, ‘‘अम्मा! हम इसको ले जाना चाहते हैं।’’
‘‘तुम्हारी वस्तु है, जैसा मन में आये करो।’’
‘‘तो इसका सामान एकत्रित कर दो।’’
‘‘इस घर में जो कुछ है, वह सब इसी का ही है। यह इस घर की लक्ष्मी है। जो ले जाना चाहो और ले जा सको, ले जाओ।’’ यह कहते-कहते मदन की दादी के आंखों में आंसू छलक आये।
समीप बैठी औरत यह देख रही थी। उसने पूछा, ‘‘तुम्हें इसका सामान देने में दुःख होता है क्या?’’
‘‘सामान देने में नहीं। यह सब कुछ इसका ही तो है। आपके दिये रुपये से ही यह बना है। और उस रुपये के अतिरिक्त भी जो कुछ आया है, वह भी इसके भाग्य से ही आया है। इस कारण, अब जब यह जा रही है तो इस सामान के जाने में कोई सन्देह नहीं है। तुम नहीं ले जाओगी तो किसी और ढंग से चला जायेगा?’’
‘‘कैसे चला जायेगा?’’
‘‘जैसे किसी भाग्यवान के जाने से सौभाग्य चला जाता है। देखो बेटी! हम सदा वैसे नहीं थे, जैसे तुमने हमें पांच वर्ष पूर्व देखा था। पंजाब में शेखुपुरा नगर की एक हवेली में हम रहा करते थे। पाकिस्तान बना तो हम वहां से चले आए किन्तु घर के पुरखा अर्थात् मेरे श्वसुर, जो उस समय सत्तर वर्ष के थे, मार्ग में उनका देहान्त हो गया। वे भाग्यवान थे। मैं, मेरे पति तथा मेरा पुत्र, हम तीनों को बेसरो सामान दिल्ली के स्टेशन पर उतार दिया गया।’’
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