उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
|
3 पाठकों को प्रिय 88 पाठक हैं |
इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘बहिन! कहां से आई है?’’
‘‘जो औरत कल आई थीं, वे दे गई हैं।’’
‘‘क्यों दे गई हैं?
‘‘तुम्हारी कोई बहिन नहीं थी, इसलिए दे गई हैं।’’
‘‘मैं इसको गोदी में लूंगा।’’
‘‘अभी नहीं, दस दिन के बाद।’’
‘‘पर बाबा! कल तो उनके साथ यह लड़की नहीं थी?’’
‘‘थी तो, शायद तुमने देखी नहीं होगी।’’
‘‘नहीं, नहीं थी। अच्छा वे हैं कहां?’’
‘‘चली गई हैं।’’
‘‘कहां गई हैं?’’
‘‘जहां से आई थीं।’’
‘‘कहां से आई थीं?’’
‘‘बहुत दूर से।’’
दिन व्यतीत होने लगे। दस दिन बाद मदन ने लड़की को अपनी गोद में लिया। वह नरम-नरम बहुत ही हल्की-सी और लाल-गुलाल थी। मदन चटाई पर बैठा उसको गोद लिये, उसके हाथो की छोटी-छोटी अंगुलियां देख रहा था।
|