लोगों की राय
उपन्यास >>
प्रगतिशील
प्रगतिशील
प्रकाशक :
सरल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
|
पुस्तक क्रमांक : 8573
|
आईएसबीएन :9781613011096 |
|
3 पाठकों को प्रिय
88 पाठक हैं
|
इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
विवश मदन चुप रहा। वह फिर खेलने के लिए चला गया। उसके बाबा ने उसको दीवाली के दिन एक मिट्टी का घोड़ा ला दिया था। वह अब एक टूटी टांग से दीवार के सहारे खड़ा था। मदन वहां पड़े हुए लकड़ी के टुकड़े तथा अन्य कंकड़-पत्थर उस पर लाद रहा था। अपने खेल में वह भूल गया था कि उनके घर में आज कोई विलक्षण बात भी हुई है।
अगले दिन मदन सोकर उठा तो वह कमरा खुला पड़ा था। उसकी दादी उस कमरे में उसी चारपाई पर बैठी थी, जिसपर पिछले दिन वह युवा स्त्री आकर बैठ गई थी।
मदन आंखें मलता हुआ भीतर गया तो उसका बाबा चारपाई के समीप झुककर दादी की गोदी में एक बच्चे को देख रहा था। बच्चा निश्चिन्त सो रहा था। मदन दादी की चारपाई के समीप खड़ा हो उस बच्चे को देखने लगा। दादी मुस्कराती हुई कभी बच्चे की ओर, कभी मदन की ओर देख रही थी।
गोपी ने पूछा, ‘‘कैसे रखोगी इसको?’’
‘‘जैसे मदन को रखा था।’’
‘‘परन्तु जब उसकी मां मर गई थी, उस समय तो वह एक वर्ष का हो गया था?’’
‘‘इससे क्या होता है। वे दूध दे गये हैं, दूछ बनाने का ढंग सिखा गये हैं। मैं समझती हूं यह काम हो जावेगा।
‘‘अम्मा! यह क्या है?’’
‘‘यह तुम्हारी छोटी-सी बहिन है।’’
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai