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प्रगतिशील
प्रगतिशील
प्रकाशक :
सरल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 8573
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आईएसबीएन :9781613011096 |
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
मदन पुनः अपने उसी स्थान पर जा कर, जो वह मोटर के आने पर छोड़कर आया था, घर बनाने लगा। दो-ढाई घण्टे तक खेलने के उपरान्त वह खाने के लिए आया। घर आया तो उसने देखा कि जो कमरा कल साफ किया गया था, भीतर से बन्द था। उसकी दादी और वे दोनों औरतें भीतर बैठी हुई थीं। मदन ने अपनी दादी को आवाज दी—‘‘अम्मा! ओ अम्मा!!’’
मदन ने सुना भीतर से किसी के कराहने का शब्द आ रहा है। वह डर गया और वहीं उस कमरे के द्वार के समीप बैठ उत्सुक्ता से पुनः आवाज की प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु फिर आवाज नहीं आई। भीतर उसकी दादी ने पुकार सुन ली थी। अतः वह द्वार खोलकर बाहर आ पूछने लगी, ‘‘क्या बात है?’’
‘‘अम्मा! भीतर क्या है?’’
‘‘कुछ है, कल बतायेंगे। जाओ, बाल्टी में पानी भरा है। आज जरा अपने आप ही नहा लो। उसके बाद रोटी दूंगी।’’
मदन आंगन में चला गया। आंगन कच्चा ही था। उसके एक कोने में पानी से भरी एक बाल्टी रखी हुई थी और समीप एक पटरी भी रखी थी। उसके समीप ही एक तामचीनी का जग पड़ा था। मदन पटरी पर बैठ गया और जग से पानी भर-भरकर अपने शरीर पर उड़ेलने लगा। इस प्रकार आधा भीगा आधा सूखा-सा वह भागता हुआ भीतर आया। दादी ने उसे देखा तो कह दिया, ‘‘तुम तो पूरे भीगे भी नहीं। क्या इसी तरह नहाते हैं?’’
इस समय भीतर के कमरे में से फिर कराहने का स्वर सुनाई दिया। मदन उस ओर देखने लगा। दादी ने उसकी बांह पकड़ी और नहलाने के लिए ले गई।
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