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प्रगतिशील
प्रगतिशील
प्रकाशक :
सरल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 8573
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आईएसबीएन :9781613011096 |
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘बेटा! बड़े घर की है।’’
‘‘ये भीतर क्या कर रहे हैं?’’
‘‘कल बताऊंगा।’’
मदन ने इस प्रकार अपने बाबा को संक्षेप में और निर्रथक, जिनको वह समझ न सके, बातें करते पहले कभी नहीं देखा था। पहले तो मदन जब भी कोई बात करता था तो उसका बाबा उसको बहुत विस्तार से और समझ सकने योग्य शब्दों में बताया करता था। आज सबका अन्त उसने ‘कल बताऊंगा’ कहकर कर दिया।
वह कुछ और पूछने का विचार कर रहा था, परन्तु इस समय उसकी दादी, घर से निकल कर बोली, ‘‘तुम अब काम पर जाओ।’’
गोपी ने कमरे में घुस, अपनी झल्ली उठाई और शाहदरा शहर की ओर चल पड़ा। वह सामान ढोने का काम किया करता था। दिन-भर दो-ढाई रुपया कमा लेता था। इससे उसका निर्वाह हो जाता था। एक समय उसका लड़का राधेलाल भी उसके साथ ही काम किया करता था। मदन, राधेलाल का लड़का था। राधेलाल की बहू का देहान्त हुआ तो वह जीवन से निराश हो, घर छोड़कर कहीं चला गया। उस समय मदन की आयु एक वर्ष की थी और वह तब से अपने दादा-दादी के पास रहता था।
गोपी गया तो मदन की दादी ने लड़के को कहा, ‘‘मदन! जाओ खेलो। भूख लगे तो चले आना।’’
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