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प्रगतिशील
प्रगतिशील
प्रकाशक :
सरल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 8573
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आईएसबीएन :9781613011096 |
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
वह प्रौढ़वस्था का व्यक्ति, गोपीचन्द, जो मोटर में आने वालों का स्वागत करने के लिए अपने घर के द्वार पर खड़ा हुआ था, उस घर का स्वामी था। लड़का मकान से कुछ अन्तर पर, खुले में मिट्टी से खेल रहा था। मोटर आई हॉर्न बजा, उसे सुनकर गोपी घर से निकल आया। मोटर और उसमें आने वालों को देख लड़का अपना खेल छोड़ मोटर के समीप आ खड़ा हुआ। मोटर खड़ी हुई तो स्त्रियां उतरकर मकान के भीतर चली गईं। साथ में आया हुआ पुरुष भी भीतर चला गया। मकान में छोटे-छोटे तीन कमरे थे और उसके साथ ही एक छोटा-सा सेहन भी था। सेहन के एक ओर को कमरे थे और तीन ओर को सात-सात फुट ऊंची दीवार थी। मकान काफी गन्दा था, परन्तु एक कमरा पिछले दिन झाड़-फूंक और धो कर साफ कर दिया गया था।
उस लड़के की दादी मोटर में आई स्त्रियों को उस साफ किए हुए कमरे में ले गई और एक को, जो अभी युवा ही प्रतीत होती थी, एक खाट पर बैठा दिया।
यह सब-कुछ देख वह पुरुष, बाहर गया और मोटर में से बिस्तर, कुछ चादरें और एक छोटा-सा ट्रंक उठा लाया। ये वस्तुएं उसने चारपाई के समीप रख दीं। फिर मदन की दादी की ओर देखकर बोला, ‘‘हम सायंकाल समाचार जानने के लिए आवेंगे।’’
दूसरी औरत, जो अभी तक खड़ी ही थी, बोली, ‘‘बाबू! आज सायंकाल नहीं। कल प्रातःकाल आना।’’
‘‘अच्छी बात है।’’
वह पुरुष बाहर निकला और मोटर में बैठकर चला गया। जब मदन अपने बाबा के उत्तर से कुछ समझ नहीं पाया तो उसने फिर पूछा, ‘‘यह औरत कौन है?’’
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