उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
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मोटर को चले दो घण्टे हो रहे थे। चालीस मील की गति से मोटर चल रही थी। वह पुरुष मोटर चला रहा था। लक्ष्मी और वह स्त्री पीछे की सीट पर बैठे थे। दोनों बातें कर रहे थे। स्त्री लक्ष्मी को मिठाइयां खाने, दूर-दूर की सैर करने और बहुत बढ़िया वस्त्राभूषण पहनने की बातें बता रही थी। उसने उसको अपने हाथ में पड़ी अंगूठी दिखाई। अंगूठी में जडा हीरा चम-चम कर रहा था। लक्ष्मी उसकी चमक देखकर चकित हो रही थी।
‘‘ऐसी अंगूठी लोगी?’’
लक्ष्मी ने लालसापूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखा। स्त्री ने अंगूठी उतार कर उसके हाथ पर रख दी। लड़की उसको अपनी उंगली में डालने लगी तो उसको वह बहुत खुली प्रतीत हुई। लड़की ने कहा, ‘‘यह तो मेरे हाथ में नहीं आती, बहुत बड़ी है।’’
‘‘अच्छा, चलकर तुम्हें तुम्हारे साइज की ले दूंगी।’’
चलकर की बात सुन कर वह चौंकी और पूछने लगी, ‘‘कहां चलकर?’’
‘‘हरिद्वार।’’
लड़की मदन के बाबा और दादी के साथ हरिद्वार जा चुकी थी। वह तो बहुत दूर था। रात-भर रेलगाड़ी में जाते लगा था और रेल गड़गड़ करती हुई गई थी। इस विचार पर उसको मदन की स्मृति हो आई। उसने सहसा चौंककर पूछा,‘‘मदन का स्कूल?’’
‘‘वह तो बहुत पीछे रह गया है।’’
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