उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
बस, फिर क्या था। लड़की ने अंगूठी फेंक दी। यदि मोटर गाड़ी की खिड़की बन्द न होती तो अंगूठी बाहर जा गिरती। खिड़की के शीशे से टकराकर वह पुन: सीट पर आ गिरी। लक्ष्मी टांगे पसार-पसार कर रोने लगी–‘‘मदन भापा! मदन भापा!! मैं नहीं जाऊंगी! नहीं जाऊंगी!!’’
उस पुरुष ने जो कार चला रहा था, लक्ष्मी को रोते सुन, पुचकारते हुए कहां, ‘‘लक्ष्मी बेटा! तनिक चुप हो जाओ। मैं तुम्हें अभी मदन के स्कूल में पहुंचा दूंगा। जरा तुम्हारी मां को हरिद्वार छोड़ आऊ।’’ यह कहते हुए उसने गाड़ी और भी तेज कर दी।
लक्ष्मी रोती रही। गाड़ी चलती गई और स्त्री उसको कभी सेव, कभी अनार आदि फल दिखा-दिखा कर चुप कराने का यत्न करती रही।
वे रुड़की के समीप पहुंचे कि लक्ष्मी शान्त होकर सो गई।
हरिद्वार में ऋषिकेश वाली सड़क पर एक मकान के सम्मुख जाकर कार रुकी। उसने वहां पहुंचते ही नौकरानी घर से बाहर निकली और कार का द्वार खोल मुस्कराते हुए अपनी मालकिन से पूछने लगी, ‘‘बहुत जल्दी आये सरकार!’’
‘‘हां, ये मोटर बहुत जल्दी भगाते हैं।’’ यह कहते हुए उसने लड़की को नौकरानी की गोद में दे दिया और बोली, ‘‘इसका ध्यान रखना
कहीं भाग न जाय।’’
नौकरानी लड़की को कन्धे के साथ लगाकर, उसे घर के भीतर ले गई। वे दोनों स्त्री-पुरुष कार से उतर, उसे ताला लगा मकान की ऊपरी मंजिल के एक अत्यन्त सुसज्जित कमरे में जा पहुंचे। पुरुष ने बैठते हुए तथा हाथ पर बंधी घड़ी में समय देखते हुए कहा, ‘‘नीला! भोजन तुरन्त आना चाहिए। मैं सायं से पूर्व घर जाना चाहता हूं।’’
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