उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
मैं कहीं जा रही हूं, जहां से शीघ्र नही लौटूंगी। मैं चाहती हूं कि तुमको अपनी कुछ यादगार देती जाऊं।’’ इतना कह उसने अपनी कमर से एक मोटी-सी सोने की तगड़ी निकली और उसे अम्मा को देते हुए कहने लगी, ‘‘जब मदन की बहू आये उसे यह मेरी ओर से दे देना।’’
‘‘तो क्या तुम तब तक नहीं लौटोगी?’’
‘‘विचार तो यही है।’’
‘‘कहां जा रही हो?’’
‘‘किसी को कहोगी नहीं तो बता सकती हूं।’’
‘‘मैं क्यो किसी को कहूंगी।’’
‘‘बाबा को, मदन को, किसी को भी नहीं।’’
‘‘नहीं कहूंगी।’’
‘‘अमरीका जा रही हूं।’’
‘‘वह तो बहुत दूर है।’’
‘‘हां।’’
‘‘अच्छा बेटी! जहां भी रहो सुखी रहो। मेरी लक्ष्मी को प्रसन्न रखना। बहुत ही प्यारी लड़की है।’’
उस स्त्री ने वह तगड़ी मदन की दादी के समीप ही चटाई पर रख दी। फिर हाथ जोड़ नमस्कार कर कमरे से बाहर चली आई। उस पुरुष तथा लक्ष्मी के पास आकर कहने लगी, ‘‘चलो, चलें।’’
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