उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘उसको भी ले चलोगे?’’
‘‘हां! हां!! तुम दोनों एक साथ ही खेलोगे, इकट्ठे खाओगे, इकट्ठे रहोगे।’’
लड़की मान गई। वह पुरुष बोला, ‘‘कपड़े बदलने की आवश्यकता नहीं। अभी हम तुम दोनों को यहीं छोड़ जायेंगे।’’
‘‘अम्मा के पास?’’
‘‘हां।’’
‘‘तो मैं चलूंगी। मोटर में चलूंगी, मदन भी चलेगा।’’
वह पुरुष उठ खड़ा हुआ। लक्ष्मी बोली, ‘‘जरा ठहरो, मैं दूध पी लूं।’’ फिर अम्मा की ओर देखकर कहने लगी, ‘‘अम्मा! मैं दूध पियूंगी।’’
मदन की दादी उठी और रसोई घर में जाकर एक गिलास में दूध डालकर ले आई।
लक्ष्मी ने दूध पिया और मुख पोंछ कर, घर से बाहर आ, हाथ के संकेत करते हुए वह उस आदमी को बुलाने लगी, ‘‘देखो, वह उस पेड़ के पीछे मदन का स्कूल है। वहां मोटर कैसे जायेगी?’’
‘‘जैसे यहां आई है।’’
‘‘तो चलो।’’
‘‘तुम्हारी माता जी आ जायं तो चलतें।’’
वह स्त्री अभी भीतर ही थी। वह मदन की दादी से विदा ले रही थी। उसने कहा, ‘‘अम्मा! अब पुन: कब मिलेंगे मैं नहीं कह सकती।
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