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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘बस नहीं। मैं मदन के साथ खेलूंगी।’’

‘‘अब तुम बड़ी हो गई हो। तुम्हें अंग्रेजी स्कूल में भरती कराना है।’’

‘‘नहीं।’’ लक्ष्मी इस नहीं का कारण भी बताना चाहती थी, परन्तु शब्दों का अभाव पाकर मौन ही रही।

‘‘मदन कहां है?’’ उस औरत ने पूछा।

‘‘स्कूल गया है।’’

‘‘लक्ष्मी! जाओ, उस कमरे में जाकर कपड़े बदल आओ।’’

‘‘नहीं।’’

इतना कह, वह उठकर, घर से बाहर जाने लगी तो उस पुरुष ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

लक्ष्मी कहीं जा नहीं रही थी। उसका वहां से उठकर जाना तो केवल उस स्त्री के आदेश के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित करना था। वह खड़ी हो गई। इस पर पुन: वह पुरुष बोला, ‘‘तुम यहां से जाना नहीं चाहतीं?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘तो मत जाओ। लेकिन जा कहां रही हो?’’

‘‘मदन के पास।’’

‘‘वह कहां है?’’

‘‘उस स्कूल में।’’ उसने दूर स्थान की ओर संकेत करते हुए कहा।

‘‘चलो, हम तुम्हे मदन के पास ले चलते हैं। और यदि हम उसको भी अपने साथ ले चलें तो तुम चलोगी?’’

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