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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘इस दु:खद जीवन के दो वर्ष और निकल गये कि एक दिन वहीं दाई, जिसने कौशल्या के प्रसव के समय केवल दो रुपये लेकर काम किया था, मुझे मिली और तुम्हारे विषय में पूछने लगी। मैं तैयार हो गई और अगले दिन तुम यहां आकर लक्ष्मी को जन्म देकर चली गईं।

‘‘देखो बेटी लक्ष्मी के यहां आने के एक मास के भीतर ही हमारा पाकिस्तान वाले मकान का क्लेम मिल गया। दस हजार रुपया मिला था। हमने मकान बनाया, अपना रहन सहन बदला और अच्छा खाने-पीने लगे। सरकार ने भूमि का मूल्य मांगा, हमने दे दिया और इस मकान की राजिस्ट्री करा ली। अब मदन के बाबा फलों की दुकान करने लगे हैं। पिछले वर्ष से वे दरियागंज में एक मकान बनवा रहे हैं। मैं तो यह सब कुछ लक्ष्मी के भाग्य से ही आया हुआ मानती हूं और मेरा मन कहता है कि इस भाग्यशालिनी के इस घर से चले जाने पर यह सब-कुछ भी चला जावेगा।’’

‘‘देखो अम्मा! हमारी स्थिति में परिवर्तन हो गया है। अब मैं इस लड़की को अपनी लड़की बनाकर अपने पास रख सकती हूं। इस कारण इसको ले जाना चाहती हूं। मैं अपनी लड़की के अतिरिक्त, यहां से कुछ नहीं ले जाऊंगी। इसके पहनने के लिए नये कपड़े लाई हूं। मैं लड़की के वे कपड़े भी नहीं ले जाऊंगी जो उसने इस समय पहन रखे हैं। मैं तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद करती हूं, जो तुमने उस आड़े समय में हमारी सहायता की है।’’

वह औरत बाहर जा कर मोटर में लक्ष्मी के योग्य सलवार, कुर्ता, चुनरी, जूता, और नये आभूषण ले आई और लड़की को देते हुए बोली, ‘‘लक्ष्मी बेटी! जाओ, इनको पहन लो। तुम्हें हमारे साथ चलना है।’’

लक्ष्मी समीप बैठी हुई उक्त वार्तालाप सुन रही थी और उस मोटर में आई हुई स्त्री की बातें समझने का यत्न कर रही थी। जब उसको कपड़े पहनने का आदेश दिया गया तो वह टुकर-टुकर उसका मुख देखने लगी।

‘‘जल्दी करो, हमें जल्दी जाना है।’’

‘‘मैं नहीं जाऊंगी।’ लक्ष्मी ने कह दिया।

‘‘क्यों?’’

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