उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘परन्तु एक बात आपने कही है, जो उक्त पूर्ण परिस्थिति में एक विशेष अर्थ रखती है। आपने कहा है कि परिवार की स्थिति सम्हालने के लिए परिवार के एक-आध सदस्य की वैश्य-वृत्ति करनी ही चाहिये। आप इसी कारण, मुझको अपने विचार से, अविद्या सीखने के लिये कह रहे हैं।
‘‘अतः मैंने मन में निश्चय कर लिया है कि मैं मेडिकल कॉलेज में पढ़ूँगा। आरम्भ में चार सौ रुपये का खर्च है। वह आपसे लेना पड़ेगा। आगे के लिये मैं रुपया पैदा करने का यत्न करूँगा। मेरी एक सहपाठिनी है। वही, जिसका पत्र गाँव में आया था और मैंने आपको सुनाया था। उसने लिखा है–‘निर्बल के बल राम’ सो मैं इस उक्ति की परीक्षा में करना चाहूँगा।’’
रामाधार हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘तो तुमको इस विषय में सन्देह है क्या?’’
‘‘पिताजी! मुझको तो राम के अस्तित्व में भी सन्देह है।’’
रामाधार भौचक्का हो पुत्र का मुख देखता रह गया। फिर कुछ विचार कर कहने लगा, ‘‘अच्छी बात है। परीक्षा कर लो। देखो, राम ने मेरे मन में उत्साह भर दिया था जब तुम्हारे नाना ने सहायता देने से इन्कार कर दिया था। अब तुममें यह विवेक-बुद्धि भी तो उसी की दी हुई है, अन्यथा स्कूल-कॉलेजों की अविद्या पढ़कर तुम भी वैसा ही विचार करते, जैसे महेन्द्रदत्त कर रहा है। अब राम ही मुझको कह रहा है कि इन्द्र को पढ़ाना चाहिये और मुझको घर पर कंजूसी कर तुमको खर्च देना चाहिये। राम मेरे कान में कह रहा है–‘इन्द्र साहसी युवक है। वह अवश्य सफल होगा।’’
साधना ने कहा, ‘‘इन्द्र! मैं भी तो तुम्हारी कुछ लगती हूँ। मौसी और माँ में भारी अन्तर नहीं होता है। जब कभी भी तुमको कठिनाई अनुभव हो, तुम मुझसे मिल लिया करना। राम की कृपा से कठिनाई दूर हो जायेगी।’’
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