उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘अतः मेरा दृढ़ मत है कि राधा का विवाह इस बालक से किया तो राधा के साथ अन्याय हो जायेगा।’’
‘‘तो मैं उनसे क्या कहूँ?’’
‘‘यही जो कुछ मैंने कहा है।’’
‘‘जीजाजी!’’ साधना को कुछ क्रोध आ गया था। उसने कहा, ‘‘लड़की वालों को दबकर ही रहना पड़ता है। हम अपनी शर्तें उनसे नहीं मनवा सकते, विशेष रूप से, जब आपने कुछ दहेज इत्यादि नहीं देना।’’
‘‘मक्खी देखकर तो खाई नहीं जाती, साधना! फिर मैंने तो केवल यह कहा है कि वह बालक-मात्र है। यह सम्भव है कि वह मेरे कहने का अभिप्राय समझकर आचरण करना सीखने लग जाये और राधा की श्रेणी पा जाये। उस अवस्था में मुझको इस विवाह की स्वीकृति देने में प्रसन्नता होगी।’’
‘‘यदि इसी प्रकार आप जाँच-पड़ताल करते रहे तो राधा कहीं कुंवारी ही न रह जाये?’’
‘‘यदि भगवान् को यही स्वीकार है तो मेरे किये से भी कुछ नहीं बन सकेगा।’’
पूरी खाकर वे अमीनाबाद पार्क में जा बैठे। वहाँ जाकर इन्द्रनारायण की पढ़ाई के विषय में विचार होने लगा। रामाधार ने उनसे पूछा–‘‘तुम क्या चाहते हो, इन्द्र!’’
‘‘आज और आज से पूर्व कई दिन के विचार-विनिमय के परिणाम-स्वरूप मैं यह समझ गया हूँ कि नानाजी से मुझको किसी प्रकार की सहायता की आशा नहीं रखनी चाहिये। आप और माताजी की बातों से यह पता चल गया है कि आपके पास जमा तो केवल ये भूषण हैं, जो माताजी बेच देने के लिये कह रही हैं। मेरा यह भी अनुमान है कि इनके बेच देने के पश्चात् राधा के विवाह के लिये भी आपके पास कुछ बच नहीं पायेगा।
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