उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘कैसी अनर्गल बातें करते हो, इन्द्र! धर्म तो वहीं है, जो तुम कह रहे हो। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह इत्यादि ही धर्म हैं; परन्तु यह भगवद्भजन उस धर्म तक जाने का मार्ग है। इसी कारण इनको पंथ अर्थात् पथ कहते हैं। बिना किसी पथ का अनुकरण किये कोई भी व्यक्ति ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी कारण पथ भी उतना ही आवश्यक है जितना ध्येय अर्थात् धर्म-परायणता। धर्म-परायणता भी किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही होती है। वह अंतिम लक्ष्य है मोक्ष।’’
‘‘ये सब व्यर्थ की बातें हैं, पिताजी! धर्म हम इसलिये करते हैं कि हमको समाज में रहना और समाज ने यह निश्चय किया है कि इसके सब घटक ऐसा आचरण रखें।’’
‘‘तो तुम समझते हो कि धर्म समाज ने निश्चित किया है?’’
‘‘तो और किसने किया है?’’
‘‘धर्म का स्रोत वेद भगवान् हैं। वेद परमात्मा की वाणी हैं। अतः धर्म पर परमात्मा द्वारा निश्चित किया गया है।’’
‘‘देखो इन्द्र! समाज में यदि वेदों से अनभिज्ञ जन अधिक संख्या में उत्पन्न हो जायें तो वे अधर्म को धर्म मानने लग जायेंगे।’’
यह बात इन्द्र को समझ नहीं आई। इससे वह मुस्कुराकर चुप कर गया। समीप बैठे रमाकान्त ने कहा, ‘‘दादा! तुम यह साधारण-सी बात भी नहीं समझ सकते। देखो, प्रमाण तो यह है–
यस्तर्केणानुसेधते स धर्म वेद नेतरः।।’
‘‘वेद, स्मृति और तर्क के अनुकूल ही धर्म है, दूसरा नहीं।’’
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