उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘दलीप एक धर्मात्मा राजा था। धर्मात्मा राजा के अर्थ हैं, प्रजा के हित में राज्य करने वाला। उस अवस्था में प्रजा भी धर्म-परायण हो सकती थी। इससे राजा यदि प्रजा, जिसका रूप गौ का माना गया है, का पालन करने में लग गया तो कोई आयुक्त बात नहीं थी। दंड-विधान तो चलाता ही था। उसके लिए मंत्रिगण तथा कर्मचारी थे ही।’’
‘‘परन्तु बाबा! राजा के राज्य और प्रजा के राज्य में अन्तर तो रहता ही है। जब राज्य पूर्ण प्रजा का हो, तब तो सब अपना-अपना कार्य चित्त लगाकर करते हैं। राजा के राज्य में किसी की रुचि क्यों होगी?’’
‘‘राजा और प्रजा के राज्य में अन्तर क्यों होगा? क्या प्रजातंत्रात्मक राज्य में शासक और शासित नहीं होते? इसी प्रकार राजा के राज्य में भी शासक और शासित होते हैं। अन्तर प्रजा तथा राजा के राज्य में नहीं, प्रत्यय धर्म और अधर्म के राज्य में है। क्या प्रजातंत्रात्मक राज्य में शासक अथवा शासित अधर्मी नहीं हो जाते?’’
इन्द्रनारायण नगर की हवा खाकर और बारह वर्ष पढ़ाई करके आया था। वह समझने लगा था कि बहुत बुद्धिमान हो गया है। परन्तु आज अपने पिता को युक्ति करते देख चकित रह गया। एक बात का उसको अभी भी संदेह था। वह समझता था कि धर्म के अर्थ पिताजी नहीं जानते। तभी धर्म-अधर्म की बात कर रहे हैं।
उसने कह दिया, ‘‘पिताजी, धर्म का अर्थ क्या समझते हैं आप? यदि सत्य बोलना, चोरी न करना, संयम से रहना इत्यादि धर्म है, तब तो ठीक है। यदि आप राम-राम करना अथवा मन्दिर में जाकर पूजा-पाठ करने को धर्म मानते हैं तो राजा धर्मात्मा होता हुआ भी राज्य नहीं कर सकेगा।’’
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