उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इस समय अनवर कोठी में आया। उसने यह सब एक ही नजर में देख लिया। सबसे बड़ी बात यह हुई कि अनवर को देखते ही विष्णु ने गुदगुदी करनी बन्द कर दी और एकदम उठ, अनवर को सलाम कर वह वहाँ से चलने को तैयार हो गया। अनवर को बहुत क्रोध चढ़ आया। वह समझता था कि अब तक कोई अनुचित बात हो रही थी, जो उसके आने से बन्द हो गयी है। बातों का एकदम बन्द होना और विष्णु का एकदम उठकर चल देना उसको बहुत अखरा। उसने विष्णु को बुला लिया, ‘‘क्यों साहब, चल क्यों दिये? रुको, मैं भी आखिर इन्सान हूँ। मेरी तबीयत भी करती है कि मैं हँसू-खेलूँ। जरा इधर तो आइये, मैं भी गुदगुदी करने का मजा लूँ।’’
विष्णु यह समझ नहीं सका कि यह बात हँसी में हो रही है अथवा व्यंग्य में। वह इसका अर्थ समझने के लिये ड्राइंग-रूम के मध्य में ही खड़ा रह गया। अनवर ने उसकी तरफ जाते हुए कहा, ‘‘आखिर नाराज क्यों हैं आप? मैंने आपका क्या बिगाड़ा है?’’
विष्णु अभी भी अनिश्चित मन वहीं खड़ा था। इतने में अनवर उसके सामने खड़े हो बोला, ‘‘भाई! मैं तो ऐसे गुदगुदी करने का शौक रखता हूँ।’’ और एक चपत कसकर उसने विष्णु के मुख पर लगा दी।
विष्णु ने सीधा वहाँ से भाग जाना ही उचित समझा। वह भागा तो अनवर खिलखिलाकर हँस पड़ा। ऐना क्रोध में पागल हुई सोफा के पास खड़ी थी।
अनवर ने उसकी ओर देखकर कह दिया, ‘‘बहुत मजेदार लौंड़ा है। क्या मजे से चपत खाकर चल दिया है। देखा बेगम! मैं भी कुछ गुदगुदी करना जानता हूँ। अगर तुमको इसका शौक था तो पहले क्यों नहीं बताया? इधर आओ, कुछ गुदगुदी इस आशिक से भी कराती जाओ।’’
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