उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘ठीक है! ठीक है! शुक्रिया की जरूरत नहीं।’’
कुछ दूर जाकर वह लड़की खड़ी हो गयी और घूमकर अनवर की ओर देखते हुए बुर्का उठाकर मुस्करा दी और एक क्षण देखने के बाद फिर बुर्का ठीक करके अन्दर की कोठी में चली गयी।
अनवर ने देखा कि छोटी लड़की बहुत ही खूबसूरत है, इस पर भी यह भी कम सुन्दर नहीं। लड़की का मुस्कराना देख उसके मुख से निकल गया, ‘‘लाहौल विला कूवत।’’
वह मोटर में सवार हो अपनी कोठी को रवाना हो गया। उसका चित्त पुनः कर्बला जाने को नहीं किया। मार्ग में वह विचार कर रहा था कि खुदा ने इनसे पहले मुलाकात क्यों नहीं कराई?
इस समय उनके मन में ऐना से मिलने से उस समय तक की सब घटनाएँ स्मरण हो आयीं। वह देख रहा था कि ऐना पहली भेंट के समय भी इतनी सुन्दर न थी जितनी यह नादिरा है। यह ठीक था कि ऐना एक विकसित पुष्प की भाँति अपने सौन्दर्य की पूर्णता तक पहुँच चुकी थी। पर नादिरा? नादिरा एक अविकसित कली के समान थी। इस पर भी सर्वथा कच्चे फल होने की भाँति न थी। उसमें पकने और मिठास के आने के लक्षण प्रकट होने लगे थे।
यह घटना बहुत ही प्रभाव उत्पन्न करने वाली थी। परन्तु कदाचित् समय पाकर इनका प्रभाव मिट जाता यदि अन्य घटनाएँ इसके प्रभाव को पुष्ट करने वाली न होतीं।
कोठी पर अनवर पहुँचा तो कोठी के ड्राइंग-रूम से हँसी के फव्वारे उठते सुनाई दिये। ऐना हँस रही थी। विष्णु उसके पास बैठा था और उसकी कुक्षि में गुदगुदी कर रहा था। ऐना उस गुदगुदी के प्रभाव से अथवा किसी अन्य बात पर खिलखिलाकर हँस रही थी।
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