उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘चो चलिये। किधर है आपकी गाड़ी?’’
‘‘आप यहीं ठहरिये। मैं अभी लेकर आता हूँ।’’
अनवर गाड़ी लेकर आया और चारों औरतें गोद में अचेत नादिरा को लेकर पिछली सीट पर बैठ गयीं। नवाब करामत हुसैन अनवर के साथ अगली सीट पर बैठ गये। अनवर ने गाड़ी में रोशनी की तो नादिरा का संगमरमर का-सा मुखड़ा, जो अभी भी उघड़ा पड़ा था और उसकी बन्द मोटी-मोटी आँखें अनवर के मन में एक विचित्र-सी हलचल मचाने लगीं। नादिरा की माँ ने लड़की को खुली हवा लगने के लिये पर्दा हटा दिया था। उसने अनवर से कहा, ‘‘जरा रोशनी बन्द कर दीजिये।’’
अनवर ने रोशनी बन्द की तो नादिरा की माँ ने बुर्का सिर से भी उतार दिया और उसके कंधो को दबाकर उसे होश में लाने लगी। नादिरा की बड़ी बहन, जिसकी गोदी में उसके पाँव थे, पाँव मलने लगी।
अनवर ने मोटर चला दी और नवाब साहब की कोठी, जो चौक के बाहर थी; ले गया। वहाँ अनवर ने पुनः रोशनी जली दी। अब तक बुर्का बिलकुल उतारकर एक तरफ रख दिया गया। वह सलवार-कुर्ता पहने सिर और पाँव में नंगी दिखाई दे रही थी।
नादिरा इस समय तक होश में आ चुकी थी। रोशनी और फिर एक अपरिचित व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित सामने खड़ा देख उसने हाथों से मुख ढक लिया। माँ ने बुर्का उठाकर उस पर डाल दिया। अनवर एक तरफ हट गया। नवाब साहब नादिरा को गोद में उठाकर भीतर ले गये।
सबसे बड़ी लड़की ने अनवर के पास गुजरते हुए बुर्के के अन्दर से कह दिया, ‘‘शुक्रिया।’’
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