उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
तीसरा परिच्छेद
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नवाबजादा अनवर यूँ तो विलायत की सैर कर आया था और अपने आपको आजाद खयालात का व्यक्ति समझता था। इस पर भी जन्मजात संस्कार अपनी परछाईं पीछे छोड़ गये थे।
ऐना इरीन के सौन्दर्य पर मुग्ध वह उसकी प्रत्येक बात मानने लगा था। ऐना लखनऊ में रहती हुई बिना बुर्का के घूमती रहती थी। घर पर भी वह सब मेहमानों से बड़े कमरे में भेंट करती थी। उससे मिलने आने वाले भिन्न-भिन्न आयु, सम्प्रदाय, समुदाय और आचार-विचार के लोग होते थे। यहाँ तक कि जब वह गर्भवती थी और आठवें-नवें मास में जा रही थी, वह निःसंकोच मिलने वालों से मिलती थी।
सप्ताह में दो-तीन बार क्लब भी जाती थी। वहाँ मद्य-सेवन और दूसरों के साथ ब्रिज खेलना भी चलता था।
नवाबजादा अनवर सामने हो अथवा न हो, उसके व्यवहार में अन्तर नहीं आता था। वह ऐना के सम्मोहन में उसकी प्रत्येक बात और उसके प्रत्येक व्यवहार का हृदय से प्रशंसक रहता था। इस पर भी उसकी आत्मा में इस्लाम की ‘पाकीजगी’ का मापदंड़ उसकी औरत का शर्मीली होना और पर्दें में रहना बना रहता था।
ऐना के बच्चा होने से पहले तो उसके सौन्दर्य का इतना जादू रहा कि मन के संस्कार कभी उमड़ते भी तो ऐना के सम्मोहन में दब जाते। परन्तु बच्चा हो जाने के पश्चात् इस स्थिति में कुछ सीमा तक अन्तर हो गया। यूँ तो गर्भकाल से ही ऐना पीली-पीली और ओजविहीन दिखाई देने लगी थी, परन्तु बच्चा होने के पश्चात् तो यह स्पष्ट दिखाई देने लगा।
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