उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘धन्य है, आवाज तो आपको पसन्द आयी है।’’
‘‘पसन्द तो सब-कुछ है, परन्तु...।’’
‘‘पसन्द क्या?’’
‘‘मैं यह नहीं समझ सका कि विष्णु मामा तुम्हारे मुख और हाथों के चिह्न कैसे जान गये?’’
‘‘कहीं गाँव में घूमते हुए अथवा सागर पर देख लिया होगा। मैं बुर्का तो पहनती नहीं थी। न ही मुख और पैर छिपाकर रखती थी।’’
इन्द्र को बात समझ में आ रही थी। उसने पूछा, ‘‘तो तुम गाँव में घूमा भी करती थीं?’’
‘‘हाँ; हमारे गाँव के बाहर बड़े इन्दारा के पास गौरी का मन्दिर है। वहाँ पूजन के लिये सब सधवा स्त्रियाँ जाया करती हैं। फिर सागर का दृश्य देखने भी मैं कई बार भैया के साथ गयी हूँ।’’
‘‘तुम विष्णु मामा को जानती हो?’’
‘‘इस नाम के किसी प्राणी से मेरा कोई परिचय नहीं है।’’
‘‘भ्रम-निवारण का यह आरम्भ था और जब रजनी की माँ इनको लेने के लिये आयी तब दोनों दूध और चीनी की भाँति हिल-मिल चुके थे।
गाँव वालों की निन्दा भी, जब घर वालों के व्यवहार पर प्रभाव नहीं डाल सकी, तो धीरे-धीरे शान्त हो गयी।
यूँ तो कभी कोई गाँव वाला पूछ लेता, ‘‘पंडितजी! बहू कैसी है?’’
तो रामाधार का उत्तर था, ‘‘ठीक है। हमारे यहाँ प्रसन्न प्रतीत होती है।’’
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