उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
शान्तं शाश्वतमप्रेममनघं निर्वाण शान्ति प्रदं,
ब्रह्मा शम्भुफणीन्द्र सेव्यमनिशं वेदान्त वेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं माया मनुष्यं हरिं,
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।
ब्रह्मा शम्भुफणीन्द्र सेव्यमनिशं वेदान्त वेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं माया मनुष्यं हरिं,
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।
तो अनायास ही इन्द्र के मुख से निकल गया, ‘‘बहुत अच्छा स्वर है!’’
शारदा ने पूछ लिया, ‘‘तो क्या पाठ सुन्दर नहीं है?’’
‘‘वह तो मैंने स्वयं भी पढ़ा है; परन्तु इस समय मैं तुम्हारे कोकिल कण्ठ की बात कर रहा हूँ।’’
‘‘तो कुछ और सुनाऊँ?’’
‘‘हाँ।’’
शारदा आगे पढ़ने लगी–
स्याम सरोज दाम सम सुन्दर।
प्रभु भुज करिकर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असिधोरा।
सुन सठ अस प्रवान मन मोरा।।
चन्द्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति विरह अनल संजातं।।
सीतल निसत बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।
प्रभु भुज करिकर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असिधोरा।
सुन सठ अस प्रवान मन मोरा।।
चन्द्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति विरह अनल संजातं।।
सीतल निसत बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।
‘‘वाह! तुम्हारी आवाज बहुत ही मधुर है।’’
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