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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव

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जब पद्मादेवी, साधना और उर्मिला दुरैया से चली आयीं तो रजनी ने भी अपना बिस्तर गोल कर लिया।

‘‘तो तुम भी जा रही हो?’’ इन्द्रनारायण ने उससे पूछ लिया।

‘‘हाँ, विचार तो यह था कि तुम दोनों को साथ लेकर ही लखनऊ जाती, परन्तु काका ने कहा है कि तुम्हारा कुछ दिन यहाँ रहना आवश्यक है। मैं समझती हूँ कि जो कुछ हुआ है, उसके पश्चात् गाँव वालों के मन पर यह अंकित करने के लिये कि परिवार के लोगों ने शारदा को पवित्र और निर्मल माना है, तुम दोनों कुछ दिन यहाँ रहो। पीछे नैनीताल चले आना। वहाँ आपके लिये कोठी में स्थान रहेगा।’’

इन्द्र का पिता भी, इसी विचार से, इन्द्र और शारदा का, गाँव में डटे रहना उचित मानता था।

रजनी गयी तो रमेशचन्द्र सिन्हा का इन्द्र को बहू सहित लखनऊ आने का निमन्त्रण मिल गया। एक सप्ताह-भर दुरैया में रहकर उनका विचार लखनऊ जाने का था और यह विचार था कि यदि रजनी के माता-पिता कहेंगे तो वे वहाँ से ही नैनीताल के लिये चल देंगे।

उन्होंने अपनी लखनऊ पहुँचने की तिथि लिखी तो इन्द्र की बहू को लेने के लिये रजनी की माँ स्वयं पहुँच गयी। रजनी ने वह सब झगड़ा, जो विष्णु के कथन से उत्पन्न हुआ था, अपने माता-पिता को बताया था। फिर रामाधार का उस झगड़े का समाधान भी बता दिया था।

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