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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


दूसरे दिन पद्मावती, साधना और उर्मिला दुरैया से विदा होकर लखनऊ पहुँच गयीं। वे लगभग पाँच बजे लखनऊ पहुँचीं। उर्मिला अपने श्वशुर के हठ को जानती थी और आशा कर रही थी कि घर को ताला लगा होगा; परन्तु उसके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा जब उसने घर का द्वार खुला पाया। महावीर को क्लब जाने के लिए तैयार देख उससे पूछ लिया, ‘‘पिताजी कार्यालय से नहीं आये क्या?’’

‘‘नहीं, मैं आया तो घर में ताला लगा था। मैं आधा घंटा बाहर खड़ा-खड़ा प्रतीक्षा करता रहा। बाद में मैंने ताला तोड़ डाला और भीतर चला आया। पर पिताजी अभी तक नहीं आये।’’

‘‘ताला तोड़ने से वे नाराज होंगे।’’

‘‘क्यों? मैं दूसरा ताला ला दूँगा।’’

‘‘तुम सुबह चाबी लेकर क्यों नहीं गये?’’ पद्मा ने पूछ लिया।

‘‘ले तो गया था, परन्तु आज तो बिल्कुल नया ताला, बाजार से मँगवाकर, लगा दिया गया था।’’

महावीर की माँ ने उसको कुछ बताने में लाभ नहीं समझा। वह अपने कमरे में जाकर, कपड़े बदल, रसोईघर में पहुँचकर खाना बनाने का प्रबन्ध करने लगी। साधना माँ का हाथ बँटाने के लिये उसके साथ हो गयी। उर्मिला चार दिन के बाद घर आयी थी। उसके पति ने केवल पूछ लिया, ‘‘कुछ आवश्यकता है? मैं क्लब जा रहा हूँ?’’

‘‘मुझको तो कुछ नहीं। हाँ, आपकी घर पर आवश्यकता रहेगी। मुझको कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि माताजी और पिताजी में आज झगड़ा होने वाला है।’’

‘‘क्यों?’’

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