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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘कल माताजी दुरैया जा रही थीं तो पिताजी ने मना किया था। माताजी का कहना था कि वे अपनी लड़की की बहू को आशीर्वाद देने के लिये जा रही हैं। पिताजी ने मना किया और कह दिया कि वे गयीं तो वापस आकर घर में प्रवेश न पा सकेंगी। इस पर भी माताजी चली गयीं। पिताजी इस कारण घर में नया ताला लगा गये थे।’’

‘‘तो यह बात थी! ताला तो बहुत मजबूत लगाया था, मगर हथौड़े की चोट के आगे टिक नहीं सका। परन्तु पिताजी ने क्यों मना किया था?’’

‘‘परसों इन्द्र की गौना हुआ था। विष्णु घूमता हुआ वहाँ जा पहुँचा। वह वहाँ जाकर कहने लगा कि इन्द्र की पत्नी आवारा है और उसका उससे संबंध रहा है। इस पर माताजी विष्णु को लेकर यहाँ चली आयीं। वहाँ रमाकान्त और उसके बीच खून-खराबा हो जाने वाला था। मार्ग में और यहाँ भी विष्णु वही बात कहता रहा। पिताजी ने विष्णु की बात को सत्य माना और माताजी को वहाँ जाने से मना कर दिया। माताजी यह समझती थीं कि विष्णु झूठ बोल रहा है और वह वैसी नहीं है। इस कारण वे पिताजी का प्रतिबन्ध नहीं मान सकीं।’’

महावीर ने कह दिया, ‘‘तो मैं आज क्लब नहीं जाऊँगा।’’

पं० शिवदत्त रात को दस बजे आये। वे घर की चौखट पर खड़े हो विचार करने लगे कि ताला कहाँ है? इस समय महावीर वहाँ आ पहुँचा और हाथ में ताला दिखाकर कहने लगा, ‘‘आपका ताला यह है। ताली मेरे पास नहीं थी, इस कारण तोड़कर ही भीतर आ सका हूँ।’’

‘‘तोड़ा क्यों है?’’

‘‘आइये, भीतर तो आ जाइये। मैंने बताया तो है कि मेरे पास ताली नहीं थी। भीतर आना जरूरी था। ताला न तोड़ता तो क्या करता?’’

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