उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘तो तुम वापस भी आना चाहती हो, अथवा नहीं?’
‘कल सायंकाल से पूर्व लौट आऊँगी।’
‘परन्तु इस घर का द्वार खुला होगा, तब न!’
‘द्वार बन्द नहीं हो सकता। यदि किसी ने यह अनधिकार चेष्टा की तो मैं प्रतिकार कर सकती हूँ।’
‘‘अच्छी बात है, जाओ।’
‘देखिये जी! आप क्लब में जाकर अनाचार करते हैं, मैं जानती हूँ। क्योंकि आज तक उस अनाचार से मुझको हानि नहीं हुई, इसीलिये मैंने आपको रोकने का यत्न नहीं किया। इसी प्रकार मैं समझती हूँ कि मेरी अपनी लड़की की बहू को शकुन और आशीर्वाद देने के लिये जाने से आपको हानि नहीं हो रही। इससे मैं जा रही हूँ।’
‘‘इतना कह मैं आ गयी हूँ।’’
उर्मिला और साधना इस बात को सुनकर भौचक्की होकर पद्मावती का मुख देखती रह गयीं। वे इस झगड़े का अन्त शुभ नहीं मानती थीं। उर्मिला ने पूछ लिया, अब क्या होगा?’’
‘‘मैं कैसे बता सकती हूँ! इतना मैं जानती हूँ कि मेरे घर का द्वार मेरे लिये बन्द नहीं हो सकता।’’
‘‘हुआ, तो क्या करेंगी आप?’’
‘‘देख लेना। कुछ तो करना ही होगा।’’
|