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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘तो महामूर्ख हो तुम! लोक-निन्दा अथवा लोक-प्रशंसा से ही तुम अपना व्यवहार निश्चित्त करते हो? जाओ, उससे क्षमा माँगो।’’

इन्द्र इस आज्ञा से अनिश्चित-मन खड़ा रह गया। रामाधार स्वयं उठा और वहाँ जा पहुँचा, जहाँ रजनी और शारदा उस कमरे में सामान ठीक कर रही थीं। शारदा रजनी के आत्मविश्वास से अति प्रभावित हुई थी। रजनी ने उससे कहा था, ‘‘अब तुम यहाँ से बाहर नहीं निकलना। सुनो, मैं जाने से पहले तुम्हारा फैसला करवाकर जाऊँगी।’’

रामाधार को आये देख दोनों लड़कियाँ कुछ देर के लिये स्तब्ध खड़ी रह गईं। वे नहीं जानती थीं कि शारदा को धक्के देकर घर से निकालने के लिये वह आया है अथवा किसी अन्य प्रयोजन से। एकाएक शारदा को अपने कर्तव्य का स्मरण हो आया। उसने घूँघट निकाल लिया और भूमि पर बैठ श्वशुर की चरण-वंदना की।

रामाधार ने पहली बार बहू को देखा था। वह भी उसके सुन्दर और सर्वथा निर्मल मुख को देख इन्द्र के तिरस्कार पर पश्चात्ताप करने लगा। शारदा को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह बालिका दुश्चरित्रा है।

रामाधार ने कहा, ‘‘शारदा बेटी! उठो, पलंग पर बैठो। मैं तुमको कुछ कहने आया हूँ।’’

इस समय इन्द्र भी अपने पिता के पीछे-पीछे वहाँ आकर खड़ा हो गया। इन्द्र की माँ और मौसी भी वहाँ आ गयी थीं। वे सब यह आशंका कर रही थीं कि घर में कुछ दो टूक बात होने वाली है। प्रातः उठकर उनमें पुनः वही चर्चा चल पड़ी थी जो रात सोने से पहले हो रही थी।

शारदा पलंग पर बैठी नहीं। जब रामाधार एक पलंग पर बैठ गया तो वह भूमि पर बैठ सिर नीचे किये सुनने लगी। रामाधार ने कहा, ‘‘बहू! कल किसी हमारे संबंधी ने तुम्हारे चरित्र के विषय में दोष लगाये हैं। उन आरोपों की चर्चा गाँव-भर में होने लगी है। यद्यपि मुझको उनकी सत्यता पर विश्वास नहीं, इस पर भी मैं और इन्द्र उनको अपने मन से अभी तक निकाल नहीं सके। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हमने तुम्हारा तिरस्कार कर दिया। तुम घर की बहू हो। तुमको घर की लड़की राधा से अधिकार प्राप्त है। तुम यहाँ रहो। रही तुम्हारे पति के मन से उन आशंकाओं का दूर करना। वह बेटी! तुम्हारा कार्य है। तुम भी अपने स्वभाव से, अपने व्यवहार से और अपने मीठे बोलने से उसके मन का वह सब कलुष निकाल सकती हो। पति-पत्नी में वैमनस्य को दूर करना उनका अपना ही कार्य है। कोई अन्य इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ‘मियाँ-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी?’’ वाली बात सर्वथा ठीक है।

‘‘इसलिये मैं तुमको यह कहने आया हूँ कि तुमको अपनी सफाई अपने पति के सामने स्वयं रखनी चाहिये।’’

‘‘शारदा ने माथा भूमि पर टेक दिया। मन-ही-मन उसने अपने श्वशुर का धन्यवाद किया और पश्चात् बैठ गयी।

पिता-पुत्र बाहर गये तो रजनी ने उसको उठाकर गले से लगा लिया और कहाँ, ‘‘भाभी! प्रारम्भिक विजय हो गयी है। शेष भी हो जायेगी।’’

इस समय सौभाग्यवती ने बहू के सिर पर प्यार देकर कहा, ‘‘बेटी! मैं तुमको विश्वास दिलाती हूँ कि हम तुमको सर्वदा निर्दोष मानते हैं। इस पर भी वातावरण में दोष एक बार उत्पन्न हुआ है तो धीरे-धीरे ही मिट सकेगा। इसीलिये तुमको अधीर नहीं होना चाहिये। मेरा कहना है कि अब स्नानादि से निवृत्त हो कलेवा करो।’’

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