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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘रामाधार ने मुस्कराकर कह दिया, ‘‘ठीक तो कहाँ है उसने। तुम उसका पाणिग्रहण कर उसे इस घर में लाये हो। इससे उसका अधिकार बन गया है कि वह यहाँ रहे। तुम्हारी बहन ने वह तुम्हारा कमरा उसके रहने के लिये निश्चित किया है। तुमको बहन का यह निर्णय मान लेना चाहिये।’’

‘‘इन्द्र के मस्तिष्क में समस्या सुलझती प्रतीत हो रही थी। उसने कहा, ‘‘बाबा! यह बात आपने रात को क्यों नहीं बताई? मैं तो उसका तिरस्कार कर बैठा था। इस तिरस्कार से यदि वह आत्महत्या कर लेती तो परिवार पर ब्रह्महत्या का पाप लग जाता।’’

‘‘तुमने तिरस्कार किया है उसका? क्या कहा था तुमने?’’

‘‘कुछ नहीं। मैंने विश्वास करने के लिये उसका चिबुक और हाथ देखा और उसको कह दिया कि वह सो जाये और स्वयं मुख मोड़कर सो गया।’’

‘‘तो तुमने उसको बताया भी नहीं कि क्या आरोप है उस पर?’’

‘‘मैं उसके साथ विवाद में पड़ना नहीं चाहता था।’’

‘‘और अपने पिता से विवाद कर सकते हो? देखो इन्द्र! तुम्हें उसको बताना चाहिये था कि उसके विषय में हमने क्या और कहाँ से सुना है। उसका उत्तर सुनना चाहिये था और पीछे अपना निर्णय देना चाहिये था।’’

‘‘मैं उसके दोषी होने अथवा न होने की बात नहीं जानता। मैं तो लोक-निन्दा की बात पर विचार कर रहा था।’’

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