उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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उसी सायंकाल इन्द्र की नानी लखनऊ से लौट आयी। उसने अपनी लड़की को बताया, ‘‘विष्णु, मार्ग-भर में और वहाँ अपने पिता के सामने भी, बार-बार वहीं बात कहता रहा है। उसका पिता भी लड़के की बात को सत्य मान बैठा है। इस कारण मैं तुमको कहने आयी हूँ कि शारदा और इन्द्र अब हमारे घर में नहीं आयेंगे। मैं भी घर छोड़कर कहीं चली जाती, परन्तु ऐसा करने का मुझमें साहस और शक्ति नहीं। इस कारण मैं तो वापस जाऊँगी।
‘‘अब तो मैं यहाँ केवल बहू को आशीर्वाद देकर लौट जाऊँगी।’’
इन्द्रनारायण की नानी के इस कथन को सुनकर उर्मिला को सबसे अधिक निराशा हुई। उसने पूछा, ‘‘माँजी! यह सब क्या हो रहा है? बहू तो सर्वथा निर्मल और पवित्र है। इसमें संदेह के लिये कोई स्थान ही नहीं।’’
‘‘मुझको इस बात का विश्वास है; परन्तु इस संसार में हम अपने कर्म फल में बँधे हुए विचरते हैं। सब-कुछ हमारी इच्छा के अनुकूल ही हो, यह सम्भव नहीं हो सकता। इससे हमको इस कर्दम में कमल बनकर रहना चाहिये। इसी में ही हमारा और सबका कल्याण है।’’
‘‘मैं तो यही कहती हूँ कि जब पिताजी ने विष्णु की बात का समर्थन किया है तो अब हमारे लिये द्विविधा उत्पन्न हो गयी है।’’
‘‘द्विविधा तो है। आज जब मैं लखनऊ से चलने लगी तो विष्णु के पिता कहने लगे, ‘तुमको उन दुश्चरित्रों के घर नहीं जाना चाहिये।’
‘‘मैंने इसका उत्तर दे दिया कि मैं बहू को वैसा नहीं समझती जैसा विष्णु कहता है। इस पर भी उन्होंने कहा, ‘तुमको अपने लड़के पर अधिक विश्वास करना चाहिये।’
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