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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


इस प्रकार की चर्चा से इन्द्र को कुछ प्रसन्नता नहीं हो रही थी, इस कारण उसने वार्तालाप बन्द करने के लिये चुप रहना उचित समझा। परन्तु रजनी ने बात बन्द नहीं की। उसने कहा, ‘‘आपका उनसे पृथक् रहना मुझको ठीक ही प्रतीत हुआ है। उनसे सम्पर्क रखना कुछ अच्छा नहीं। वे आशा करती थीं कि लड़के उनको तोहफे दिया करें। विष्णु ने इरीन को सबसे अधिक भेंट दी है।’’

इन्द्र अभी भी चुप था। इस समय वे चलते-चलते हजरतगंज में पहुँच गये थे। वहाँ से वे केसर बाग की ओर घूम गये। कुछ देर चुप रहकर रजनी ने पुनः पूछा, ‘‘आप इन अवकाश के दिनों में गाँव जायेंगे अथवा लखनऊ में ही रहेंगे?’’

‘‘गाँव जा रहा हूँ। इस पर भी मैं चाहता हूँ कि परिणाम निकलते ही यहाँ चला आऊँ और फिर घर वालों से राय कर आगे का कार्यक्रम बनाऊँ।’’

‘‘आपका पता क्या है? मैं आपको बधाई का पत्र लिखूँगी।’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है। बहन का आशीर्वाद और बधाई दोनों मिलनी चाहिये। रजनी बहन भी अपना पता बता दें, तो मैं पूछूँगा कि किस कॉलेज में भरती होने का विचार है।’’

इस प्रकार केसर बाग के समीप पहुँच दोनों खड़े हो गये और दोनों ने एक-दूसरे के पते लिख लिये। आगे दोनों के मार्ग भिन्न-भिन्न थे। नमस्ते हुई और अपने-अपने मार्ग पर चले गये।

इन्द्रनारायण को रजनी का व्यवहार विचित्र प्रतीत हुआ था। दो वर्ष एक कॉलेज में एक ही श्रेणी में पढ़ने रहने पर भी, एक दिन भी इतने लम्बे काल तक और इस प्रकार की निजी बातें नहीं हुई थीं।

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