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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘देखो इन्द्र! मैं रात-भर सो नहीं सका। मुझको विदित है कि आधी रात के समय तुम्हारी बहू नीचे उतर आयी थी। वह कुएँ की जगत पर जाकर खड़ी हो गयी। मुझको भय लगा कि वह कुएँ में कूदकर आत्महत्या करने वाली है। वह कुछ देर तक खड़ी रहकर लौटी और रजनी की खाट पर जा बैठी। रजनी उठी और उसको लेकर तुम्हारे कमरे में चली गयी। यह सब क्या है? मैं समझता हूँ कि तुमने उसको स्वीकार नहीं किया?’’

‘‘हाँ पिताजी! मैं चाहता था कि यदि वह कुँवारी है तो कुँवारी रहे, जिससे उसको गिला न रहे कि मैंने उसका कौमार्य-भंग कर उसे त्याग दिया है।’’

‘‘मैं यह विचार करता हूँ कि क्या कौमार्य-भंग करना मुख्य बात है अथवा पाणिग्रहण करना? पाणिग्रहण होते ही वह तुम्हारी पत्नी हो गयी। कौमार्य-भंग हो अथवा न हो। चार वर्ष तक उसका कौमार्य-भंग नहीं हुआ, इस पर भी वह तुम्हारी पत्नी ही कही जाती थी। आज भी तुम उससे सम्बन्ध बनाओ अथवा न बनाओ, वह तुम्हारी पत्नी ही कहायेगी।’’

‘‘यह बात मुझको समझ नहीं आती, बाबा! पति-पत्नी में मुख्य बात तो...’’

‘‘देखो इन्द्र! मुख्य बात तो दोनों का मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन करना है। गृहस्थ धर्म में इस यौन-सम्बन्ध के अतिरिक्त बहुत कुछ है। गृहस्थ आश्रम यज्ञ-स्वरूप है। इस आश्रम के आश्रय ही ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम चलते हैं। इतना बड़ा उत्तरदायित्व पति-पत्नी दोनों मिलकर ही निभा सकते हैं।’’

‘‘क्या इस आश्रम का मुख्य कार्य सन्तानोत्पति नहीं?’’

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