उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो तुमको मेरे कहने पर भी विश्वास नहीं हुआ?’’
‘‘रजनी बहन! तुम क्या जानती हो इस लड़की के विषय में? कल पहली बार ही तो तुमने इसको देखा है। मैं समझता हूँ कि एक स्त्री की रक्षा के लिए तुम्हारी सम्मति पक्षपातपूर्ण हो गयी है।’’
‘‘और तुम इसके विषय में कब से जानते हो कि यह चरित्रहीन है? तुमने इसको कल से पहले कब देखा है? दुष्ट विष्णु के कहने पर तुमने विश्वास किया और उसके विपरीत सम्मति रखने वाली को पक्षपातपूर्ण कह दिया।’’
‘‘तुम पिताजी से बात कर लो। मैं उनकी बात का उल्लंघन नहीं कर सकता।’’
‘‘तो उन्होंने आज्ञा दी है कि इसको पत्नी नहीं बनाओ?’’
‘‘आज्ञा तो नहीं कह सकता। हाँ, उन्हें यहाँ गाँव में रहना है और मैं उनकी सुविधा-असुविधा का विचार छोड़ नहीं सकता।’’
‘‘अच्छी बात है। तो बात काका से होगी। यह इस कमरे में रहेगी। तुम इसके पास रहना नहीं चाहते हो तो इस कमरे में मत आओ।’’
इन्द्रनारायण लौट गया। शारदा ने रजनी को कहा, ‘‘बहन! झगड़ा करने से कुछ परिणाम निकलेगा क्या?’’
‘‘यह झगड़ा नहीं, भाभी! यह अपने अधिकार के लिये आग्रह है।’’
‘‘इन्द्रनारायण बाहर अपने पिता के पास गया तो कहने लगा, ‘‘बाबा! क्या होगा अब?’’
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