उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
शारदा रजनी को देख रही थी और बोलती नहीं थी। रजनी ने अपने चारों ओर देखा। सब सो रहे थे। उसने इस विचार से कहीं शोर होने से दूसरे जाग न पड़े, शारदा को मकान में चलने का संकेत कर दिया। दोनों उठाकर पुनः उसी कमरे में चली गयीं, जहाँ वे पहले बातचीत कर रही थीं। कमरे में गर्मी पर्याप्त थी। इससे रजनी ने वहाँ रखा हाथ का पंखा ले, अपने और शारदा पर हवा करते हुए खड़े-खड़े ही पूछ लिया, ‘‘ऊपर से आ क्यों गयी हो?’’
शारदा की आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं, परन्तु वह कुछ कह नहीं रही थी। रजनी उसको देख समझ गयी कि पति-पत्नी में झगड़ा हुआ है। क्या हुआ है, क्या कहा गया है और किस सीमा तक बात पहुँच गयी है, वह जानना चाहती थी।
वह शारदा को लेकर पलंग पर बैठ गयी। उसकी पीठ पर हाथ फेरकर प्यार देने लगी। इससे तो शारदा फूट पड़ी। वह सिसकियाँ लेते हुए रोने लगी।
कमरे की खिड़की खुली थी। और उसमें से मन्द-मन्द वायु आ रही थी। यूँ कमरे में गर्मी थी और उनको पसीना आ रहा था। उस पर वह मन्द-मन्द वायु शीतलता प्रदान कर रही थी।
कितनी ही देर शारदा अपना सिर रजनी की गोद में रखकर रोती रही और रजनी उसकी पीठ पर प्यार देती रही।
लगभग आधा घण्टा रोने के बाद शारदा शान्त हुई। उसने रजनी की ओर देखा और कहा, ‘‘मैं नहीं जानती कि क्या करूँ। छत पर से नीचे आई थी कि इन्दारे में कूदकर प्राणान्तर कर लूँ। वहाँ गई थी, परन्तु फिर मन में विचार आया कि मैं तो निर्दोष हूँ। क्या निर्दोष को भी मर जाना चाहिये? इस विचार से मैं वहाँ से चली आयी थी। ऊपर छत पर जाने को जी नहीं किया। आप सबको सोए देख विचार आया कि चुप-चाप किसी के चरणों में पड़ सो रहूँ। सो आपकी खाट पर बैठी ही थी कि आपकी नींद खुल गयी।’’
|