उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इसका अभिप्राय था कि अब पति-पत्नी को परस्पर परिचय करने का अवसर मिलना चाहिये। रजनी शारदा को लेकर मकान की छत पर चली गयी। नव-दम्पत्ति के लिये बिस्तर लगे थे। चाँद की चाँदनी छिटक रही थी और चारों ओर सुहावना दिखाई देता था। रजनी ने शारदा को एक बिस्तर पर बिठा दिया और कहा, ‘‘लो रानी! अब मैं चली। अब सुबह बधाई देने आऊँगी।’’
वह अवसर नहीं आया। रजनी नीचे जा रही थी कि इन्द्र सीढ़ियों में ऊपर जाता हुआ मिला। रजनी ने उसके मुख पर देखा। चाँद की चाँदनी में वह काला-सा दिखाई दिया। रजनी ने उसका मार्ग रोककर कह दिया, ‘‘इन्द्र भैया! बुद्धि मत खो दो। विवेक से काम लो।’’
‘‘हाँ बहन! मैं सब समझता हूँ। मुझको मूर्ख मत समझो।’’
इतना कहकर वह ऊपर चढ़ गया। रजनी नीचे आँगन में, जहाँ स्त्री-वर्ग के लिये सोने का प्रबन्ध था, सबमें बैठ गयी। अब बहू की अनुपस्थिति में विष्णु की बात पर चर्चा होने लगी।
सौभाग्यवती ने कहा, ‘‘यह कैसे हो गया कि बहू के चरित्र के विषय में गाँव-भर में चर्चा हो रही है?’’
‘‘विष्णु ने गाँव में भी किसी से बात की होगी? परन्तु काकी! है यह सब असत्य। मैंने शारदा से बातें की हैं। मेरा अनुमान है कि वह सर्वथा भोली-भाली है।’’
‘‘जब तुम इन्द्र के कमरे में बहू से बातें कर रही थीं तो गाँव के चौधरी सुखदयाल आये थे और इन्द्र के पिता को बता गये हैं कि गाँव-भर में बहू के चरित्र पर चर्चा हो रही है।’’
‘‘तो काका ने क्या कहा है?’’
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