उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘मेरा मन कहता है कि मेरा जहाँ विवाह होगा, वह मुझको डॉक्टरी नहीं करने देंगे।’’
‘‘तो फिर पढ़ती क्यों हो?’’
‘‘तो क्या करूँ?’’
‘‘तुम यहाँ मेरे पास रहो। मुझको तुम बहुत अच्छी प्रतीत होती हो।’’
‘‘तुम तो अपने पति के पास चली जाया करोगी और मैं अकेली बैठी रह जाऊँगी।’’ यह कहते हुए रजनी टेढ़ी दृष्टि से शारदा की ओर देखते हुए मुस्करा दी।
‘‘तो माँजी से कहकर तुम्हारा भी विवाह करा देंगे।’’
‘‘ओह! तो तुम मेरी माँ से सिफारिश करोगी?’’
शारदा को समझ आयी कि वह रजनी से छोटी है। इस पर भी उसने कह ही दिया, ‘‘जब पढ़ोगी नहीं, तो विवाह हो ही जायेगा।’’
‘‘भाभी!’’ रजनी ने कह दिया, ‘‘विवाह भाग्य के बिना नहीं होता। जब तक मेरे भाग्य में विवाह-सुख नहीं बदा तब तक किसी के करने से भी विवाह नहीं हो सकता।’’
‘‘माँ कहती थीं कि वे बहुत सुन्दर और योग्य हैं?’’
‘‘तो तुमने उनको देखा नहीं?’’
‘‘नहीं; पहली बार, चार वर्ष हुए आयी थी तो सारा समय घूँघट निकाले रही थी। आज तो अभी दर्शन नहीं हुए?’’
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