उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘परन्तु तुम तो मुझसे बहुत बड़ी आयु की लगती हो। मेरी माँ रोज कहती थी कि मैं बड़ी हो गयी हूँ। क्या मुझको माँ के घर में ही बूढ़ी हो जाना है?’’
‘‘रजनी हँस पड़ी। हँसते हुए उसने कह दिया, ‘‘इस पर भी तुम बूढ़ी नहीं हुई और न ही बूढ़ी होने के लक्षण दिखाई देते हैं। भाभी! तुम्हारी माँ को भ्रम हो गया था कि तुम बूढ़ी हो रही हो। मैं तो समझती हूँ कि तुम तो अभी युवा भी नहीं हुई।’’
‘‘दीदी! तुम्हारी सगाई तो हो चुकी होगी? कहाँ है ससुराल तुम्हारी?’’
‘‘नहीं, अभी सगाई भी नहीं हुई। मैं भी पढ़ती हूँ। इन्द्र भैया के साथ ही पढ़ती हूँ। तीन वर्ष बाद पढ़ाई समाप्त करने पर ही मेरा विवाह होगा।’’
‘‘ओह! तो तुम भी डॉक्टर बनोगी?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘और बहुत रुपया कमाओगी?’’
‘‘यह भगवान् के अधीन है।’’
‘‘क्यों? डॉक्टर बनोगी तो क्या रुपया नहीं कमाओगी?’’
‘‘नहीं भी कमा सकती। क्या जाने डॉक्टरी कर भी सकूँगी अथवा नहीं।’’
‘‘कर क्यों नहीं सकोगी?’’
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