उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘वहाँ क्या है?’’
‘‘वहाँ लखनऊ है। प्रान्त की राजधानी है। पढ़े-लिखे, धनी-मानी और उच्च पदवीधारी लोग रहते हैं। उनको देखना, मिलना और उनके बनाये नगर की शोभा का अवलोकन बहुत शिक्षाप्रद होगा।’’
यह युक्ति रामाधार को नहीं जँची, परन्तु इन्द्रनारायण की माँ की अपने माता-पिता से मिलने की इच्छा जाग पड़ी और एक-दो दिन में ही परिवार एक सप्ताह के लिए लखनऊ जाने को तैयार हो गया।
मन्दिर का काम एक अन्य पंडितजी के हाथ में दे, रामाधार परिवार सहित इन्द्र के नाना के घर जा पहुँचा। शिवदत्त दूबे लाट साहब के दफ्तर में सुप्रिन्टेन्डेन्ट था। उस समय साढ़े पाँच सौ वेतन लेता था और निर्वाह बहुत भली-भाँति होता था। अपने कार्य से एक दिन की छुट्टी ले दूबेजी ने अपने जामाता को लखनऊ की सैर कराई। बच्चों को ले जाकर सिनेमा दिखाया और फिर एक दिन इन्द्रनारायण की कॉलेज की शिक्षा का प्रसंग चला दिया।
रामाधार का कहना था—‘‘इन्द्र ने कार्य तो पुरोहित का करना है। फिर भला बी. ए., एम. ए. बनकर क्या करेगा?’’
‘‘रामाधार!’’ शिवदत्त ने अपने मन की बात कह दी, ‘‘जमाना तेजी से बदल रहा है। लोगों की श्रद्धा तथा भक्ति भगवान् से हट कर संसार की ओर लग रही है। जब तक इन्द्र सज्ञान होगा, तब तक तो मन्दिरों में आने वालों की संख्या शून्य हो जाएगी। मेरी बात मानो, जब तक तुम्हारा जीवन है, तुम यह पूजा-पाठ और कथा-कीर्तन का कार्य चलाओ। अपने बच्चों के भविष्य को काला क्यों कर रहे हो?’’
अपने बच्चों का भविष्य काला करने की युक्ति ने रामाधार का मुख बंद कर दिया। मन तो नहीं माना था, परन्तु बुद्धि निरुत्तर हो चुकी थी। भगवान् के भक्तों की संख्या शून्य हो जाएगी, यह कथन वह गले से उतार नहीं सका था। परन्तु दिन-प्रतिदिन गाँव के लोगों की रुचि भी दूसरी ओर जाती देख, उसकी बुद्धि इस भविष्यवाणी को असत्य नहीं कह सकी।
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