उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
9 पाठकों को प्रिय 410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
उसने बुद्धि से उचित परन्तु मन की भावना के विपरीत बात कहने से बचने के लिए अपनी पत्नी, जो समीप ही बैठी थी, की ओर देखकर पूछ लिया, ‘‘भाग्यवान! तुम क्या कहती हो?’’
‘‘मैं कहती हूँ कि लड़के का विवाह हो जाना चाहिये। अब वह सोलह वर्ष का हो रहा है। शेष तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।’’
शिवदत्त हँस पड़ा। हँसकर कहने लगा, ‘‘अब तो लड़के के विवाह के लिए सोलह वर्ष की आयु कम मानी जाती है।’’
‘‘तो कितनी आयु ठीक मानी जाती है।’’
‘‘कम-से-कम पच्चीस। इस पर भी यदि लड़का कमाने योग्य न हो तो इससे भी बड़ी आयु में विवाह हो सकता है।’’
‘‘परन्तु पिताजी! आपने अपना दामाद तो पन्द्रह वर्ष की आयु का ढूँढ़ा ही था?’’
‘‘तब और आज की बात में अन्तर हो गया है। उस समय मन्दिर की आय निर्वाह के लिए पर्याप्त थी, परन्तु अब नहीं रही।’’
‘‘देखिए पिताजी! हमारी आय तो बढ़ी है। घर का खर्चा अधिक हुआ तो आय भी अधिक हुई है और प्रतिवर्ष खा-पीकर कुछ-न-कुछ जमा हो रहा है।’’
‘‘परन्तु यह दिन-प्रतिदिन कम हो रहा है। एक दिन आने वाला है कि जब मन्दिर में उल्लू बोला करेंगे। ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रसार होता जायेगा, पूजा-पाठ छूटता जायेगा। और इसका स्थान सिनेमा आदि ले लेंगे।’’
|