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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


स्कूल में भी यदाकदा इन्द्र सुना करता था, ‘‘पत्थर की मूर्ति भला क्या शान्ति देगी; अतः भक्ति तो निराकार, निर्लेप, अनन्त, अमर, अजर इत्यादि गुणों वाले भगवान् की ही फलदायक हो सकती है।’’

गाँव में स्त्रियाँ—माँ, बहन, भाभी, काकी इत्यादि सम्बोधनों से पुकारी और स्मरण की जाती थीं। नगर में पाठ होता था–

‘उलझा है पाँव यार का जुलफे दराज में,
लो आप अपने दाव में सैयाद आ गया।’


इस प्रकार जन्मजात और बाल्यकाल में सम्भूत संस्कार मिट रहे थे और नवीन संस्कार बन रहे थे। इस पर भी पाटी पर से पिछला लिखा समूल विलीन नहीं हो सका और इसी कारण नवीन लेख उग्र नहीं बन सका।

इन्द्रनारायण ने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की तो उसके नाना ने फतवा दे दिया—‘‘कॉलेज में पढ़ा जाये।’’

कॉलेज में पढ़ाई का प्रलोभन अति प्रबल था। परन्तु पिता का विचार था कि काफी पढ़ लिया है और अब घर का कार्य सँभालने के लिये शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये। माँ यद्यपि दूबेजी की लड़की थी, परन्तु अपने पति के घर के वातावरण से प्रभावित, अपने लड़के को, अब विवाह मन्दिर और पुरोहिताई का कार्य ही सँभालने की सम्मति दे सकी।

जब इन्द्रनारायण ने अपने माता-पिता की रुचि उन प्रलोभनों के, जो उसके नाना के आदेश से उत्पन्न हो गये थे, विपरीत देखी तो कहने लगा, ‘‘बाबा! नानाजी कहते थे कि आप, माताजी तथा रमा और राधा सब लखनऊ भ्रमण के लिये आ जाओ।’’

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