उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘माँ! यह सब रूढ़िवाद है। ब्राह्मण के पेट नहीं होता क्या? क्या परमात्मा ने उसको रस लेने के लिये जीभ नहीं दी? आखिर ब्राह्मण ने कौन-सा पाप कर दिया है जो इतनी स्वादिष्ट वस्तु उनके लिये नहीं है?’’
‘‘यह बात तो तुम घर चलकर अपने जीजाजी से कर लेना। वे शास्त्र के ज्ञाता होने से पाप-पुण्य की बता देंगे। मैं तुमको एक दूसरी बात बताती हूँ। यदि तुम तुरन्त यहाँ से चले नहीं जाते तो हमको बिना बहू के यहाँ से चला जाना पड़ेगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘ तुमको म्लेच्छ क्रिस्तान मानते हैं और यदि उनको पता चला कि तुम हमारे परिवार में हो तो हमको भी म्लेच्छ मानने लगेंगे। वे अपनी लड़की म्लेच्छों के घर भेजना पसन्द नहीं करेंगे।’’
‘‘तो न दें, माँ! इन्द्र को और पढ़ी-लिखी लड़की मिल जायेगी। इनकी लड़की विधवा समान यहाँ पड़ी रहेगी।’’
‘‘कैसी अनर्गल बातें करते हो, विष्णु! विवाह होने के पश्चात् वह हमारे घर की बहू है। यदि उसका कुछ अनिष्ट हुआ तो वह हमारा अनिष्ट होगा। हम अपनी बहू छोड़कर नहीं जा सकते।’’
‘‘तो वे हमको म्लेच्छ क्यों मानते हैं?’’
‘‘इसलिये कि तुम म्लेच्छों की-सी बातें जो करते हो। घर पर चलकर तुम्हारे प्रायश्चित्त की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी।’’
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