उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो माँ! पिताजी का भी प्रायश्चित्त कराओगी न?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वे भी तो मछली और मांस का सेवन करते हैं।’’
‘‘तो अच्छा हुआ है, वे यहाँ नहीं आये। मेरा कहा मानो, सीधे लखनऊ के लिये रवाना हो जाओ। तुम्हारी बहन और जीजाजी न तो तुम्हारे साथ बैठकर यहाँ खायेंगे और न ही अपने घर पर।’’
‘‘मैं तो इन्द्र का गौना लेने के लिये आये हुओं में सम्मिलित होने आया हूँ।’’
‘‘तो ऐसा करो। तुम आज, अभी यहाँ से विदा हो जाओ। दुरैया चले जाओ और वहाँ तुमसे बात कर लेंगे। यहाँ तुमको पंक्ति से बाहर बिठाकर खिलाया-पिलाया जा सकेगा। इसे तुम्हारा, तुम्हारे पिता का और मेरा भी अपमान हो जायेगा।’’
‘‘तो चलो, तुम भी चलो। तुमको भी तो अपने परिवार का साथ देना चाहिये।’’
‘‘मेरा परिवार तो तुम्हारी बहन भी है। मेरे परिवार के दो अंगों में भिन्नता आ गयी है। वे दोनों परस्पर एक पंक्ति में नहीं बैठ सकते, तो न बैठें। मेरा संबंध दोनों के साथ रहेगा। तुम जो एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न हो गये हो, पृथक्-पृथक् रहो, जिससे तुममें झगड़ा न हो जाये। मेरा तो तुम दोनों में किसी से भी झगड़ा नहीं।’’
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