उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘पर बरखुरदार! मेरे रिश्तेदार हैं, बिरादरी है, बेगमें हैं। उन तक तो यह तुम्हारा अदब (साहित्य) पहुँच सकता नहीं। तुमने उनमें यह काँटेदार झाड़ी लगा दी है। उनको यह चुभ रही है।’’
अनवर फिर हँसा। इस बार उसकी हँसी में वह शोखी नहीं थी। वह स्वयं भी कुछ काँटों के चुभने को अनुभव कर चुका था। इस पर भी इन काँटों की चुभन अभी मीठी थी। उसमें दुःख अनुभव नहीं हुआ था। उसने कह दिया, ‘‘हजरत! यह काँटेदार झाड़ी मेरे लिये है। इसकी चुभन भी मेरे लिये है। कोई दूसरा इसको छुए भी क्यों?’’
अनवर ने आगे कहना जारी रखा–‘‘अब्बाजान! इसीलिये तो मैंने लखनऊ में कोठी बनवा ली है, जिससे जब कोई यहाँ आये तो चमड़े के दस्ताने पहनकर आये, जिसमें कहीं भूल से भी इस काँटेदार झाड़ी को छू जाये तो भी काँटों से बच सके।’’
‘‘मगर दिल पर क्या ओढ़कर आया जाये। आँखों पर कौन-सा चश्मा लगाया जाये? देखो, जब बेगम उस छोकरे से आँखें मटका कर बातें कर रही थी, मेरे दिल में घुटन पैदा हो रही थी। अब उसमें से खून बह रहा है।’’
‘‘अब्बाजान! यह विलायती तहजीब है। बातें करते समय हमेशा मुख पर मुस्कराहट और आँखों में रोशनी आ जानी चाहिये। खास तौर पर जब कोई मर्द और औरत बात करें तो यह आसार (लक्षण) और भी तेज हो जाने चाहिये। इसमें कोई खराबी नहीं मानी जाती।’’
‘‘देख लो बेटा! ये बातें यहाँ की आबोहवा में नहीं चल सकतीं।’’
‘‘चल तो रही हैं।’’
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