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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘बहुत बेशर्मी का पहरावा है।’’

‘‘इसमें बेशर्मी की कौन-सी बात है?’’

‘‘जिस्म के सब नक्शो-निगार (रूपरेखा) कपड़े पहने हुए भी दिखाई देते हैं–छाती का उभार, कमर की बारीकी और टाँगों की गोलाई। इसके अलावा चोली का गला इतना खुला है कि छाती का ऊपर का हिस्सा देखने में कुछ ज्यादा कोशिश करने की जरूरत नहीं पड़ती। चोली की बाँहें तो हैं ही नहीं और गोल गोरी बाँहें बगलों तक दिखाई देती हैं।’’

‘‘अब्बाजान! आपके लिए तो वह लड़की बराबर है। आपको तो उसके जिस्म की तरफ ऐसे ही निगाह दौड़ानी चाहिये, मानो वह बच्ची है।’’

‘‘ठीक है, मगर जब बच्ची जवान हो जाये तो वह भी नंगी नहीं देखी जा सकती।’’

‘‘अब्बाजान! मेरी राय है कि आप एक और शादी कर लें। कोई जवान औरत मिल जायेगी। तब इन अंगों के देखने की हवस उससे पूरी हो जाया करेगी।’’

इस बात ने नवाब साहब का मुख बंद कर दिया। इस पर भी दूसरा झगड़ा हुआ इरीन के हरम के भीतर बन्द रहने से इन्कार करने पर इससे भी अनवर ने अपने पिता का मुख बन्द कर दिया। एक समझौता हो गया। गाँव में रहते हुए इरीन को हरम में रहना होता था, लखनऊ जाकर वह बुर्का उतार सकती थी।

इरीन को गर्भ ठहरा तो उसके लिये लखनऊ में एक पृथक् कोठी बनने लगी। कोठी का मानचित्र इरीन के पिता ने बनवाया था। अतः कोठी अंग्रेजी ढंग की बन गयी। इसकी चारदीवारी बहुत ऊँची न थी। कोठी के बाहर खड़ा आदमी असानी से कूदकर अन्दर आ सकता था। न ही कोठी में कोई पृथक् अन्तःपुर था। औरतों के लिये कोई पृथक् कमरा नहीं था। कोठी में सात बेडरूम थे। प्रत्येक बेडरूम के साथ बैठक तथा टट्टीघर था। सब-कुछ ऐसा ही था, जैसा होटलों में बे-पर्दा होता है।

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