उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तब तो बहुत अच्छा है। जब गाती हों तो उनके चरणों में बैठकर सुना करिये। सच कहती हूँ, बहुत रस आयेगा।’’
‘‘नहीं, यह बात नहीं। मैं चाहता हूँ कि घर पर आपको दावत दूँ और यह कहूँ कि आपका सितार सुनने के लिये यह दावत है, तो स्वीकार करेंगी क्या आप?’’
‘‘अभी इसके लिये अवकाश कहाँ है? यह अवसर तो ‘फाइनल’ परीक्षा के पश्चात् ही आ सकता है।’’
‘‘अर्थात् साढ़े तीन वर्ष के पश्चात्?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तो ऐसा करिये, एक दिन मुझको ही अपने घर पर निमंत्रण दे दीजिये।’’
‘‘आप किस विषय में कुशलता रखते हैं, जिसको आप दिखायेंगे?’’
‘‘बातें करने में।’’
‘‘वह तो दो वर्ष तक सुनती ही रही हूँ।’’
‘‘अब पहले से भी भिन्न बातें होंगी।’’
‘‘क्या भिन्नता आ गयी है उनमें?’’
‘‘पहले मैं आपको भली-भाँति देख नहीं सका था। अब मेरा वह दृष्टि दोष नहीं रहा। मुझको आप बहुत ही प्यारी लगने लगी हैं।’’
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