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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


रजनी समझ गयी थी कि वह अब क्या कहने जा रहा है। इस पर भी, अभी और वहीं, उससे झगड़ा करना नहीं चाहती थी। वह वहाँ से उस ओर घूम गयी, जिधर दूसरे लोग चाय के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे।

विष्णु जब बात को इतनी दूर तक ले गया था तो वह बात को वहीं छोड़ देने की इच्छा नहीं रखता था। उसने साथ-साथ चलते हुए कहा, ‘‘मैंने इरीन के साथ बहुत समय व्यर्थ गँवाया है। मुझको उसका खेद है। मैं समझता हूँ कि अब मैं ठीक स्थान पर पहुँच गया हूँ। क्या समझती हैं आप, मिस रजनी?’’

रजनी चलते-चलते खड़ी हो गयी। उसने मन में निश्चय कर लिया था कि वह उसको अपने मन के उसके विषय में भाव स्पष्ट रूप से कह दे। उसने विष्णु के मुख की ओर देखते हुए कहा, ‘‘देखिये जी! मैं आपको एक आवारा भाई ही समझती हूँ। मैं समझती हूँ कि आप अपने मन में व्यर्थ की कल्पनाएँ कर अब भी अपना समय गँवा रहे हैं। इन्द्र भैया के कारण मैं आपका मान अवश्य करती हूँ, अन्यथा अब तक आपके मुख पर एक चपत लगा चुकी होती।’’

इतना कह वह वहाँ से चल पड़ी। विष्णु उसी स्थान पर भौचक्का हुआ खड़ा रहा। उसे ऐसी आशा नहीं थी।

मिस स्मिथ उसको विष्णु के साथ लॉन में टहलने देख रही थी और उनके लौटने, खड़े हो जाने और फिर रजनी को विष्णु को वहीं छोड़ लम्बे-लम्बे पगों से आते देख, आपने साथी को छोड़ उसकी ओर मुस्कुराते हुए बढ़ी। रजनी का मुख क्रोध के कारण लाल हो रहा था। मिस स्मिथ ने उसका मार्ग रोक कह दिया, ‘‘तो दे आयी हो उसको अपना प्रेम-प्रसाद?’’

‘‘क्या?’’ रजनी ने चौंककर पूछ लिया।

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