उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
कॉलेज में वे कम-से-कम बोलते थे। श्रेणी के सब विद्यार्थी दोनों को भाई-भाई समझते थे। अब सब विस्मय करते थे कि ये एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् क्यों रहते हैं? विष्णु की अपनी एक मित्र-मण्डलली थी और वह सदा उसे ही हेल-मेल रखता था। इन्द्र सबके साथ मिलता था, बोलता था, परन्तु उसका विशेष सम्बन्ध किसी से नहीं था।
एक दिन विवाह की दावत हुई। उसमें इन्द्र ने पूर्ण श्रेणी को आमंत्रित किया। उसका किसी से विशेष सम्बन्ध नहीं था।
श्रेणी में तीन लड़कियाँ भी थीं–दो ऐंग्लो-इंडियन समुदाय की थीं और एक कायस्थ बिरादरी से। इनको निमंत्रण देने में सहायता के लिये इन्द्र ने विष्णु से कहा, ‘‘दादा! इनको भी कह दो कि कॉलेज के रैस्टोराँ में चाय के लिये आ जायँ।’’
‘‘तुम स्वयं ही जाकर कह दो न!’’
‘‘मैंने इनसे कभी बातचीत नहीं की।’’
‘‘क्यों, लज्जा लगती है क्या? अरे बुद्धू! सोसाइटी में रहना भी सीखोगे अथवा तपोवन में साधु बनने का विचार है?’’
इन्द्र ने मन में कुछ विचार किया और उनसे कहने चल पड़ा। तीनों लॉन में एक ओर खड़ी बातें कर रही थीं। इन्द्रनारायण अकेला ही उनके पास जा खड़ा हुआ। कायस्थ लड़की से वह कहने लगा, ‘‘रजनी बहन! आज श्रेणी के सब विद्यार्थियों को चाय का निमंत्रण है। आपको भी कहने आया हूँ। कॉलेज के बाद कॉलेज के रैस्टोराँ में आने की कृपा करें।’’
‘‘क्या बात है, इन्द्रजी?’’ बहन संबोधन पर रजनी को इसमें रस प्रतीत हुआ था। सभी लड़के उसको मिस कहकर पुकारते थे।
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