उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘यदि कोई योग्य परिवार मिल जाता तो मैं तुम्हारा विवाह कर देता और फिर तुम्हारी और तुम्हारे पति की शिक्षा-दीक्षा तथा संस्कार एक समान होते। तुम अपनी योग्यता के अनुसार पढ़तीं और लड़का अपनी योग्यता के अनुसार। यदि तुम्हारी पढ़ाई करने की क्षमता इतनी होती कि तुम्हारे ससुराल वाले उसका भार वहन न कर सकते तो मैं तुम्हारी सहायता कर देता। इस पर भी, जो सामंजस्य तुममें और तुम्हारे पति में उत्पन्न होता, वह तुम दोनों के जीवन को अधिक रसमय कर देता।’’
इस व्याख्या के पश्चात् रजनी चुप कर गयी। वह अपने और इन्द्रनारायण के इकट्ठे एक ही घर में रहने तथा एक ही कॉलेज में पढ़ने पर विचार करने लगी थी। वह मन में विचार करती थी कि यदि इन्द्रनारायण का विवाह न हुआ तो फिर पिताजी की योजना कार्यान्वित हो सकती। परन्तु यह सम्भव नहीं था। वह अपने मन में इन्द्र के लिये भाई की भावना ही अनुभव करती थी।
इन्द्र भी यही अनुभव कर रहा था। उसको अपने माता-पिता का संदेह स्मरण हो आया था। इस पर भी उसको सिन्हा साहब की व्याख्या पर संतोष नहीं हो रहा था। परन्तु वह उसमें छिद्र भी नहीं ढूँढ़ सका।
‘‘देखो इन्द्र! तुम शान्तिस्वरूप से पूछो कि इनका विवाह किस प्रकार हुआ है? सुनाओ शान्ति! तुम अपनी पत्नी को कब से जानते हो?’’
शान्तिस्वरूप और सरोज हँसने लगे। लक्ष्मी भी मुस्करा रही थी। रमेशचन्द्र ने बताया, ‘‘एक दिन नारायणप्रसाद भटनागर सरोज के पिता मेरे पास आये कहने लगे, ‘वकील साहब, मुझको नौकरी से निकाल दिया गया है। मेरी कुछ सहायता कर दीजिये।’
‘‘मैंने पूछ लिया, ‘कहाँ नौकर थे?’
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