उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘हाँ, यह सम्भव है। यत्न करने पर और तनिक सोच-समझकर व्यवहार किया जाये तो यह कुछ कठिन नहीं। मेरी पक्की धारणा है कि दुःखमय विवाहों का एक महान् कारण यह होता है कि लड़का-लड़की पृथक्-पृथक् परिवारों में रहते हुए पृथक्-पृथक् संस्कारों से परिपक्व हो जाते हैं। विवाह के पश्चात् एक-दूसरे के अनुकूल होने की क्षमता न रखने से या तो वे झगड़ते रहते हैं अथवा पति पत्नी के अधीन होकर रहते हैं।’’
‘‘तो आपका विचार है कि मेरा गौना हो ही जाना चाहिये?’’
‘‘मेरा विचार तो यह है कि विवाह के तुरंत पश्चात् ही लड़की को श्वशुर के घर पर रहना आरम्भ कर देना चाहिये और लड़की की शिक्षा-दीक्षा ससुराल वालों के घर होनी चाहिये। लड़की की शिक्षा पर जितना ससुराल वाले व्यय करेंगे, उतना ही लाभ उनके परिवार को होगा। जैसे लड़के को पढ़ाने से परिवार को लाभ होता है, वैसे ही लड़के की बहू को पढ़ाने से भी लाभ उनको होगा। अतः दोनों की शिक्षा-दीक्षा लड़की के ससुराल वाले अर्थात् लड़के के माता-पिता को करनी चाहिये।’’
रजनी हँस पड़ी। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘पिताजी! आप मुझको पढ़ाई का खर्च देते हुए थक गये प्रतीत होते हैं?’’
‘‘यह बात नहीं, रजनी! दुर्भाग्य से मेरे विचारों का कोई समधी अभी तक मिला नहीं, इस कारण तुम्हारा विवाह नहीं हो सका। हम कायस्थों की बिरादरी में प्रायः सरकारी नौकरी करने वाले ही हैं, इस कारण उनके मस्तिष्क ‘फोसिलाइज्ड’ (जीवाश्मित) हो गये हैं। वे केवल लकीर को ही पीटना जानते हैं। किसी प्रथा अथवा संस्कार के अन्दर गुह्य विचार को समझ नहीं सकते। अपने विचार का समधी ढूँढ़ने में समय लग गया और तुम बड़ी आयु की हो गयीं।
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