उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इस पर इन्द्र खाते-खाते रुक गया और प्रश्न-भरी दृष्टि से वकील साहब के मुख पर देखने लगा। कुछ देर चुपचाप खाते रहने के बाद सिन्हा ने कहा, ‘‘छोटी आयु में विवाह का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बहू अपनी सास के घर के रहन-सहन, रीति-रिवाज और अपनी ससुराल के घर वालों के स्वभाव से परिचित हो जाती है। यदि स्वभाव मिल गया तो हिन्दू संयुक्त परिवार चलना सुगम हो जाता है। यह बाल्यकाल से ही इकट्ठा रहने से सम्भव हो सकता है।
‘‘यदि बीस-पच्चीस वर्ष की बहू घर में आये तो उसका स्वभाव बन चुका होता है। वह अपने माता-पिता के घर में रीति-रिवाज से ओतप्रोत हो ससुराल में आती है। वहाँ वह अपने माता-पिता के घर के चलन को चालू करने का यत्न करती है। इससे झगड़ा होता है और संयुक्त परिवार चलना असम्भव हो जाता है। बहू अपने पति से भी निर्वाह न कर सके यदि दोनों में यौन-संबंध के लिये परस्पर निर्भरता न हो। इसमें भी या तो पति को स्त्री की इच्छानुसार रहकर गृह-शान्ति मोल लेनी पड़ती है, अन्यथा दोनों में जीवन-भर खट-पट चलती है।’’
‘‘पर पिताजी!’’ इन्द्र ने पूछ लिया, ‘‘क्या संयुक्त परिवार रखना इतना अधिक आवश्यक है कि बाल-विवाह जैसी कुप्रथा जारी रखी जाये?’’
‘‘बाल-विवाह में क्या हानि है? देखो इन्द्र! विवाह में दो बातें सम्मिलित हैं। एक तो दो परिवारों का संबंध–विशेष रूप से एक लड़की का अपने माता-पिता का घर छोड़कर श्वशुर अथवा पति के घर में जाना और दूसरा पति-पत्नी का यौन-संबंध। दोनों पृथक्-पृथक् बातें हैं। यह आवश्यक नहीं कि दोनों एक समय में ही आरम्भ हो जायें। विवाहित जीवन को सुखी और आनन्दमय बनाने के लिये प्रथम बात, अर्थात् लड़की का पति के घर में आना और रहना, अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए विवाह छोटी अवस्था में ही हो जाये तो बहुत लाभप्रद होगा।’’
‘‘क्या दोनों कार्यों को पृथक्-पृथक् रखा जा सकता है?’’
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